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धर्म निरपेक्षता के मर्म को समझना जरूरी

भारतीय संविधान में और खासकर संविधान की प्रस्तावना (preamble) में साफ तौर से कहा गया है कि भारत लोकतांत्रिक प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य होगा। इसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता को लेकर संविधान लागू होने के बाद से ही विवाद चलता रहा है। इसलिए वस्तुस्थिति के बारे में सही जानकारी सबको मिलनी चाहिए। कुछ दिनों तक एक राजनीतिक दल ने दूसरे राजनीतिक दल पर यह आरोप लगाया था कि उसकी धर्मनिरपेक्षता की नीति वास्तव में छद्म धर्मनिरपेक्षता है। संविधान निर्माताओं ने इस बात पर गहराई से विचार किया था कि क्या आधुनिक युग में धर्म के आधार पर राज्य का सुचारू संचालन संभव है? संविधान सभा में भी इस विषय पर पर्याप्त बहस हुई थी। इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म के आधार पर शासन चलाने के कितने दुष्परिणाम होते हैं। इसलिए भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य का संचालन किसी धर्म के आधार पर नहीं होगा। इतना ही नहीं, ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत जैसे देश में जहां धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा, संस्कृति, रहन सहन और रीति रिवाज इतनी बड़ी संख्या में मौजूद हैं वहां इनमें से किसी एक को राज्य के द्वारा बढ़ावा दिए जाने और किसी दूसरे को अपमानित और लांछित किए जाने का भारी नुकसान हो सकता है। संविधान निर्माताओं ने इस अनेकता की कमजोरी को एकता की ताकत में बदलने का एक फार्मूला तैयार कर दिया जो भविष्य के लिए भी एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में काम करेगा। धर्मनिरपेक्षता को ठीक से समझने के लिए इसके शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दिया जाना चाहिए। निरपेक्षता और सापेक्षता दोनों धारणाओं में मुख्य बात है अपेक्षा। कोई काम समय सापेक्ष होता है तो उसमें यह अर्थ छिपा हुआ है कि समय वहां महत्वपूर्ण है लेकिन उसी काम को समय निरपेक्ष कर दिया जाए तो उसका अर्थ ये हुआ कि काम हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है परंतु कब होना है इसके लिए समय सीमा निर्धारित नहीं है।

भारतीय संविधान में भारतीय गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि राज्य के संचालन में धर्म को महत्व नहीं दिया जाएगा। धर्म जो है वो रहेंगे, धार्मिक संस्थाएं भी रहेंगी, धर्म परायणता भी रहेगी और धार्मिक रीति रिवाज अपने ढंग से चलते रहेंगे। राज्य न तो किसी धर्म को अपनाएगा और न ही किसी धर्म का विरोध करेगा। संविधान ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राज्य को यद्यपि धर्म की जरूरत नहीं है परंतु यहां के हर नागरिक को धर्म और आस्था की स्वतंत्रता प्राप्त है। राज्य इतना जरूर देखेगा कि इस मामले में कोई किसी के साथ जोर जबरदस्ती न करे। अगर भारत के एक गांव में किसी एक धर्म के मानने वाले 500 लोग हैं और दूसरे धर्म के मानने वाले सिर्फ 10 लोगों का एक परिवार है तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि अधिक संख्या वाले अपनी ताकत के बल पर कम संख्या वाले लोगों को अपना धर्म छोड़ने के लिए मजबूर कर सकें और अगर कहीं ऐसा होता है तो राज्य उसमें हस्तक्षेप करेगा। कई बार ऐसे प्रयास किए भी जाते हैं लेकिन भारत का कानून इस मामले में इतना सजग है कि वह `मत्स्य न्याय` की इस प्रवृति को कभी सफल नहीं होने देता। यह कहना भी शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार जैसे-जैसे बढ़ा है वैसे-वैसे धर्म के संबंध में गलतफहमियां भी दूर हुई हैं। सही बात तो यह है कि धर्म के संबंध में न कोई विवाद है और न ही होना चाहिए। धर्म वह मार्ग है जो अपने आराध्यदेव तक पहुंचने में मदद करता है। आराध्यदेव भी अलग-अलग हैं- कोई उन्हें भगवान मानता है तो कोई खुदा मानता है, कोई ईसा मसीह को भगवान मानता है तो कोई गुरुनानक को अपना आराध्य मानता है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर भी ऐसे ही आराध्य देवों की श्रेणी में आते हैं। कोई सगुण ब्रह्म को मानता है तो किसी की आस्था निर्गुण ब्रह्म में है। हिन्दू लोग तो यहां तक मानते हैं कि वैसे तो भगवान निर्गुण और निराकार हैं परंतु धरती पर जब अधर्म का बोलबाला स्थापित हो जाता है तो उसका नाश कर धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए भगवान अवतार ले लेते हैं।

वैसे तो आस्था से जुड़े मुद्दों पर बहस नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो यह धारणा अतार्किक नहीं दिखती। जो सर्वशक्तिमान है, जो सृष्टि के निर्माण और विनाश का कारण बन सकता है वह अगर अवतार लेता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यहां पर धर्म को सही ढंग से समझने में भी कुछ पुख्ता आधार मिल जाते हैं। गीता के अनुसार भगवान कृष्ण ने यह वचन दिया था कि जब-जब धर्म पर आपत्ति आएगी तो वह अधर्म को समाप्त कर धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए अवतार लेंगे। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मानव जब अपने कर्मों को भूलकर गलत रास्ता अपनाएगा अथवा मानव का एक समूह अपने दंभ और जोर जबरदस्ती के कारण अन्य लोगों को मानवोचित कर्मों से अलग करने की साजिश करेगा तब-तब भगवान अवतार लेंगे और अधर्मियों का नाश करेंगे ताकि मानवोचित कर्मों के महत्व को फिर से स्वीकार किया जाए और समाज सुचारू रूप से आगे बढ़े। धर्म का वास्तविक अर्थ यही है। मानवोचित कर्मों को अर्थात उन कर्मों को जिन्हें मनुष्य के लिए धारण करना जरूरी है धर्म कहते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वभाविक है कि मनुष्य के इतने लंबे इतिहास में मनीषी लोग पैदा हुए हों और उन लोगों ने अलग-अलग काल में अलग-अलग धर्म की स्थापना की हो। यह तो आस्था वाली बात बन जाती है कि जो मार्ग हमें पसंद है उस मार्ग पर हम चलें। हमें अपनी धार्मिक स्वतंत्रता सही रूप में तभी मिल सकती है जब हम दूसरों की धार्मिक स्वतंत्रता का आदर करें। शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति भी यही है कि जीयो और जीने दो। इसलिए भारत जैसे देश में जहां अनेक धर्म हैं वहां के लिए यह जरूरी है कि लोग यह मानकर चलें कि सभी धर्म अपनी जगह पर स्वतंत्र हैं और भारतीयता नामक एक धर्म ऐसा है जिसमें सभी धर्मों का न सिर्फ आदर किया जाता है बल्कि सभी धर्म उसमें समाहित भी हैं।

भ्रम की स्थिति तब पैदा होती है जब लोग यह पूछने लगते हैं कि राज्य का धर्मनिरपेक्ष होना तो समझ में आता है लेकिन व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है। इस भ्रम का निवारण सिर्फ एक तथ्य से हो सकता है कि मुझे अपने धर्म में पूरी आस्था है परंतु दूसरे धर्मों के प्रति मेरे मन में आदर का भाव भी है। आधुनिक लोकतंत्र में और खासकर भारत जैसे गणराज्य में इस बात को बहुत साफ तौर से समझ लेना चाहिए कि जो जितने महत्वपूर्ण पद पर बैठा है उसके लिए धार्मिक सहिष्णुता उतनी ही ज्यादा जरूरी है। एक आम आदमी कोई बात कहता है या कोई काम करता है तो उसका असर उसके इर्द गिर्द रहने वाले लोगों पर ही होता है। परंतु अगर कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कोई बात कहता है या कोई आचरण करता है तो उसकी तरफ सबका ध्यान जाता है। उसके आचरण और वक्तव्य दोनों में बनाने और बिगाड़ने की क्षमता है। कोई हिन्दू मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कोई बात कहता है या कोई आचरण करता है तो उसकी तरफ सबका ध्यान जाता है। उसके आचरण और वक्तव्य दोनों में बनाने और बिगाड़ने की क्षमता है। कोई हिन्दू मुख्यमंत्री अजमेरशरीफ जाकर चादर चढ़ाता है अथवा स्वर्ण मंदिर जाकर मत्था टेकता है तो उसका समाज पर अच्छा असर होना लाजिमी है। वह स्थिति वास्तव में आदर्श होगी जब एक धर्म के लोग दूसरे धर्मावलंबियों के धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल हों।

वर्तमान संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता को लेकर फिर से एक विवाद छिड़ गया है। राजनीतिक ढंग से कुछ लोग लीपापोती करने में लगे हैं लेकिन विवाद के कारणों को समझना और उनका समाधान करना समय की मांग है। हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक सलाह के तौर पर यह कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का प्रधानमंत्री का दावेदार ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसकी छवि स्वच्छ हो और धर्मनिरपेक्ष हो। उनके इस बयान को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघ चालक मोहन भागवत से लेकर भाजपा के नेता बलवीर पुंज तक ने भारी विरोध किया। हालांकि नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी का नाम नहीं लिया था लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेताओं ने यह मान लिया कि नीतीश कुमार का कथन नरेंद्र मोदी के बारे में है। इस सिलसिले में यह कहना जरूरी है कि वैसे तो नीतीश कुमार ने एक ऐसी सलाह दी है जो सिर्फ एनडीए ही नहीं सभी राजनीतिक दलों के लिए जरूरी है। और फिर एनडीए को ऐसी सलाह देने का उनका हक भी बनता है। जो स्वयं एनडीए का सदस्य है वह यदि ऐसी सलाह देता है तो इसमें बुरा क्या है। इस सलाह का विरोध करने वालों के बारे में ऐसा भी सोचा जा सकता है कि यहां चोर की दाढ़ी में तिनके वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। नरेंद्र मोदी की छवि को लेकर जो विवाद पहले से बना हुआ है उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ी गई। यह सही है कि एनडीए में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन जहां तक एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार का नाम तय करने की बात उठेगी तो जाहिर है कि उसमें शामिल सभी दलों की राय ली जाएगी। संघ और भाजपा ने एनडीए के साथी दलों से परामर्श किए वगैर यह कहना शुरू कर दिया कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने नरेंद्र मोदी का कद ऊंचा उठाने के लिए एक अभूतपूर्व कदम उठाया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्हें बुलाने के लिए उनके शर्तों को मानते हुए कार्यकारिणी के एक सदस्य संजय जोशी को बिना कारण बताए निकाल दिया। भाजपा के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि एनडीए के दलों को साथ लेकर चलने में कोई लापरवाही दिखाई गई तो वही परिणाम होगा जो राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला। एनडीए के दो बड़े दल जदयू और शिवसेना ने एनडीए के प्रत्याशी का समर्थन नहीं किया और यूपीए के प्रत्याशी का समर्थन किया। जाहिर है कि अगर एनडीए के सबसे बड़े दल भाजपा ने अन्य दलों को विश्वास में लेकर राष्ट्रपति चुनाव के लिए नीति बनाई होती तो उसकी ऐसी फजीहत नहीं होती। कमाल की बात तो यह है कि भाजपा के कुछ बड़े नेता यह दावा कर रहे हैं कि संगमा को समर्थन देकर उन्होंने बीजद और अन्नाद्रमुक को एनडीए में शामिल करने की एक चाल चली है। भाजपा का एक आम कार्यकर्ता भी सोच सकता है कि यदि जदयू और शिवसेना को छोड़कर बीजद और अन्नाद्रमुक का समर्थन मिल भी जाए तो वह कितना लाभदायक होगा।

जहां तक नरेंद्र मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित करने की दिशा में तेजी से कदम उठाए जाने का सवाल है तो एनडीए का आम कार्यकर्ता भी इस बात को आसानी से पचा नहीं सकता। इसमें कई सवाल शामिल हैं। पहला सवाल तो यह है कि क्या एनडीए में प्रधानमंत्री के दावेदार बनने लायक और नेता नहीं हैं। नरेंद्र मोदी मेंऐसी कौन सी विशेषता है जो एनडीए के अन्य नेताओं में नहीं है। भाजपा वाले नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष की छवि प्रदान करना चाहते हैं जबकि असलियत यह है कि गुजरात का विकास नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से बहुत पहले हो चुका था। मोदी ने एक विकसित राज्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ाया। अगर उनके साथ बिहार के मुख्यमंत्री और एनडीए के नेता नीतीश कुमार की तुलना की जाए तो मीडिया से लेकर हर कोई यह मानने को तैयार है कि नीतीश कुमार ने विकास की दृष्टि से पिछड़े एक राज्य को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया। अगर इस तुला पर तौलकर देखा जाए तो नीतीश कुमार कहीं अच्छे विकास पुरुष साबित होते हैं। उनकी स्वच्छ छवि और धर्मनिरपेक्ष चिंतन के बारे में उनके विरोधियों को भी कोई साक्ष्य नहीं मिलेगा। राजनीतिक समीक्षकों की बात को छोड़ दिया जाए, एक आम आदमी भी इस बात को आसानी से समझ लेगा कि नरेंद्र मोदी जैसा कट्टरपंथी व्यक्तित्व शायद एनडीए के पास दूसरा नहीं है। जाहिर है कि एनडीए में शामिल अन्य दल इसे पसंद करें या न करें लेकिन भाजपा कट्टरपंथी छवि वाले नेता नरेंद्र मोदी को दावेदार बनाकर मैदान में उतारने का मन बना रही है। भाजपा के एक नेता ने तो चार कदम और आगे बढ़कर मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से कर दी। शायद भाजपा और पूरे संघ परिवार की सोच यह बन रही है कि कट्टरपंथी नेता ही चुनाव में उनका उद्धार कर सकता है। यह दूर की कौड़ी तो उन्हें दिखाई दे रही है लेकिन चिराग तले अंधेरा वाली कहाबत भी वे चरितार्थ करने जा रहे हैं। पूरे एनडीए की तो बात छोड़ दी जाए, भाजपा के अंदर भी सभी लोग कट्टरपंथ को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति जब बड़ी लड़ाई लड़ने चलता है तो पहले घर को मजबूत कर लेता है।

हमारी वर्तमान राजनीति में समय साक्षेप व्यवहारिकता का भी काफी महत्व है। एक नगर निगम चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक राजनीतिक दलों के यहां टिकट मांगने वालों की भीड़ लग जाती है। हर व्यक्ति अपना बायोडाटा पेश करता है। पार्टी सबको तो टिकट दे नहीं सकती इसलिए जितने लोग आवेदन करने वाले हैं उनमें से ऐसे प्रत्याशी को पार्टी टिकट देती है जिसके खिलाफ मतदाता में ज्यादा विवाद न हों। यहां तक कि आपराधिक छवि वाले या घोटाले के आरोपी व्यक्तियों से हर पार्टी यथासंभव किनारा करने की कोशिश करती है। उसे पता है कि टिकट दे देना ही पर्याप्त नहीं है, मतदाता के बीच उस व्यक्ति की क्या पहचान बनती है उसपर ही उसकी हार जीत निर्धारित होगी। नीतीश कुमार की सलाह को एनडीए के नेताओं को एक स्वर्णिम सलाह (गोल्डन एडवाइस) के तौर पर देखना चाहिए। नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिकता के आरोप लगे हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि जब तक अदालत द्वारा उन्हें दोषी या निर्दोष साबित नहीं कर दिया जाता तब तक इस बारे में अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि वह एक विवादित व्यक्तित्व जरूर हैं। यहां तक कि बिहार विधानसभा के चुनाव में जहां जदयू और भाजपा साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे, नीतीश कुमार ने यह मांग कर दी कि भाजपा के नेता किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार करने के लिए न भेजें। यह स्थिति सिर्फ बिहार की नहीं है। अन्य प्रदेशों के कई और नेता भी यह चाहते हैं कि उनके राज्य में प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी न जाएं। अब सवाल ये उठता है कि अगर भाजपा और संघ परिवार ने यह ठान लिया हो कि कोई साथ आए या कोई साथ छोड़कर जाए उन्हें उसकी परवाह नहीं है तो बात दूसरी होगी। लेकिन अगर पहले की तरह भाजपा यह चाहती है कि एनडीए सभी सहयोगियों को साथ लेकर चले तो ऐसे ही व्यक्तित्व को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना चाहिए जिसकी छवि विवादित न हो। धर्मनिरपेक्षता की छवि भारत में नेता बनने के लिए जरूरी है। स्थानीय स्तर के चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक किसी भी प्रत्याशी की छवि अगर दागदार मानी जाती है तो उसके समर्थन मिलने की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं होती है। राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के सामने नरेंद्र मोदी को लेकर एक गंभीर चुनौती खड़ी हो सकती है। जिन दलों का धर्मनिरपेक्षता की नीति में अटूट विश्वास है वे भाजपा से दूरी बनाए रखने का प्रयास करेंगे। यह जरूरी नहीं कि एनडीए से हटने वाले सभी दल यूपीए में शामिल हो जाएं लेकिन इतना निश्चित है कि अगर दागदार छवि का व्यक्ति भाजपा की और से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया जाता है तो धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखने वाले दल एनडीए से जरूर अलग हो जाएंगे। नीतीश कुमार की सलाह को सही वक्त पर दी गई सही सलाह मानकर सही समय पर सही फैसला लेना ही भाजपा के लिए बुद्धिमानी होगी।


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