Friday

छुआछूत का सिलसिला है सदियों पुराना

वैसे आज की तारीख में यह एक बहुचर्चित कार्यक्रम भी है। जिसमें दिखाये जाने वाले सभी विषय हमारे समाज के लिए कोई नये नहीं है। किन्तु जिस तरह इन सभी विषयों को इस कार्यक्रम के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। वह यक़ीनन काबिले तारीफ़ है। क्यूंकि कुछ देर के लिए ही सही वह सभी विषय हमें कहीं न कहीं सोचने पर विवश करने में सक्षम सिद्ध हो रहे हैं और हमारे ऊपर प्रभाव भी डाल रहे है, कि हम उन विषयों पर सामूहिक रूप से एक बार फिर सोचें विचार करें। लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ कुछ देर विचार कर लेने से या सोच लेने से इन सब दिखायी गई समस्याओं का समाधान हो सकता है ? नहीं बल्कि इन विषयों पर हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इतना ही नहीं हम जो समाधान निकालें उस पर हमें खुद भी अमल करना होगा। तभी शायद हम किसी एक विषय की समस्या पर पूरी तरह काबू पा सकेंगे, वरना नहीं। ऐसा मेरा मानना है। वैसे तो इस कार्यक्रम पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस कार्यक्रम ने ना सिर्फ आम जनता को, बल्कि लेखकों को भी लिखने के लिए बहुत से विषय दे दिये है। इसलिए में इस कार्यक्रम की बहुत ज्यादा चर्चा न करते हुए सीधा मुद्दे पर आना चाहूंगी।

हालांकी मेरा आज का विषय भी इस ही कार्यक्रम से जुड़ा है और वह है छुआछूत का मामला जिसके तहत में पूरे कार्यक्रम का विवरण नहीं दूंगी। मैं केवल बात करूंगी उस बात पर जो इस कार्यक्रम के अंतर्गत इस छुआछूत वाले भाग के अंत में कही गयी थी। लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं यहां कुछ और अहम बातों का भी जि़क्र करना चाहूंगी। वो यह कि यह छुआछूत की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है।

राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो मेरा तो दिमाग ही घूम गया हो सकता है। उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शवरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और दूसरी बार एक धोबी के कहने में आकर माता सीता को घर से बेघर कर जंगलों में भटकने के लिए विवश कर दिया था। वह भी तब जब वह गर्भवती थी। क्या उस वक्त आपको लगता है कि यह बात यदि उस धोबी की जगह किसी सभ्य या ऊंची जाति के व्यक्ति ने कही होती, तब भी भगवान राम ऐसा ही करते ?

खैर वह भगवान थे और वो भी मर्यादा पुरुषोतम शायद इसलिए ऐसा करने पर विवश थे। लेकिन जन्म तो उन्होने भी एक आम इंसान के रूप में ही लिया था। इसका मतलब हमें उन्हें एक आम इंसान के रूप में देखते हुए ही बात करनी चाहिए। मगर शायद यह बात बहुत से धर्म के ठेकेदारों को हज़म नहीं होगी। वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं छू अछूत की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घौर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छूत-पाक की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हां तुलनात्म्क दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम है और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहात पहुँचती है कि उन्हें बहारी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।

उनको समान अधिकार नहीं दिया जाता, वह किसी के साथ उठ बैठ नहीं सकते, एक नल से पानी नहीं पी सकते, एक मंदिर में भगवान की आराधना नहीं कर सकते और यदि किसी तरह मंदिर में जाने की इजाज़त मिल भी जाये तो एक ही दरवाजे से मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। उन्हें एकसा प्रसाद तक नहीं मिल सकता क्यूं? क्योंकि वह दलित है? लेकिन जरूरत के वक्त हम जैसे तथाकथित उच्च श्रेणी में आने वाले लोगों को इन्हीं दलितों की आवश्यकता पड़ती है। फिर चाहे अपने घरों में काम करवाने के लिए कामवाली बाई रखना हो, या साफ सफ़ाई करवाना हो, जरूरत इन्हीं ही की पड़ती है। तब कहाँ गुम हो जाता है, हमारा यह भेद भाव और सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ अयीयाश क़िस्म के उच्च वर्ग में गिने जाने वाले लोगों के लिए तो इस निम्न समाज की लड़कियाँ उनकी शारीरिक भूख मिटाने का समाधान बन सकती है। उस वक्त वो उनका बिस्तर बाँट सकती है। मगर उसके अलावा उनके घर के बिस्तर पर साधारण रूप से बैठ भी नहीं सकती। बहू बेटी बनना, बनाना तो दूर की बात है क्यूं ।

वैसे देखा जाये तो इस समस्या का शायद कोई समाधान है ही नहीं और शायद है भी, वह है यह विजातीय विवाह, लेकिन जिस तरह हर एक चीज़ के कुछ फ़ायदे होते है, ठीक उसी तरह कुछ नुक़सान भी होते हैं। इस विषय में मुझे ऐसा लगता है कि यदि ऐसा हुआ अर्थात विजातीय विवाह हुए तो किसी भी इंसान का कोई ईमान धर्म नहीं बचेगा। सभी अपनी मर्जी के मालिक बन जाएंगे और उसका गलत फायदा उठाया जाना शुरू हो जायेगा। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है और मुझे ऐसा लगता भी है कि एक इंसान को सही मार्गदर्शन दिखाने और उस पर उचित व्यवहार करते हुए चलने कि प्रेरणा भी उसे अपने धर्म से ही मिलती है और धर्म किसी भी बात एवं कार्य के प्रति इंसान को आस्था और विश्वास का पाठ सिखाता है। जो एक समझदार और सभ्य इंसान के लिए बेहद जरूर है।

मगर अफ़सोस इस बात का है कि हमारे समाज की यह विडम्बना है, या यूं कहिए की यह दुर्भाग्य है कि यहां न सिर्फ आज से बल्कि, सदियों पहले से हम धर्म के नाम पर लड़ते और मरते मारते चले आ रहे। क्योंकि शायद हम में से किसी ने आज तक धर्म की सही परिभाषा समझने कि कोशिश ही नहीं की, क्योंकि धर्म कोई भी हो, वह कभी कोई गलत शिक्षा नहीं देता। इसलिए शायद हमारे बुज़ुर्गों ने बहुत सी बातों को धर्म से जोड़कर ही हमारे सामने रखा। ताकि हम धर्म के नाम पर ही सही, कम-से-कम उन मूलभूत चीजों का पालन तो करेंगे। मगर उन्हें भी कहाँ पता था कि पालन करने के चक्कर में लोग कट्टर पंथी बन जाएंगे और एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान समझना ही छोड़ देगा। जिसके चलते संवेदनाओं का नशा हो जायेगा जैसे कि आज हो रहा है। आज इंसान के अंदर कि सभी समवेदनायें लगभग मर चुकी हैं। आज हर कोई केवल अपने बारे में सोचता है। सब स्वार्थी है, किसी को किसी दूसरे कि फिक्र नहीं है इसलिए आज देश पर भ्रष्टाचार का राज चलता है।

जिसके कारण देश चालने वालों का नज़रिया देश के प्रति देशप्रेम न रहकर स्वार्थ बन गया है और उनकी सोच ऐसी की देश जाये भाड़ में उनकी बला से उन्हें तो केवल अपनी जेबें भरने से मतलब है। अब हम आते हैं मुद्दे की बात पर जो इस कार्यक्रम के अंत में आमिर ने कही थी कि यदि देखा जाये तो ऐसी मानसिकता के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम खुद ही हैं क्यूंकि आज हम अपने बच्चों को बचपन से ही झूठ बोलना और भेद भाव करना खुद ही तो सिखाते है और आगे चलकर जब वही बच्चा कोई भ्रष्ट काम करता है, तब बजाय हम खुद अपने अंदर झांकने के उस बच्चे पर आरोप प्रत्यारोप की वर्षा करते हैं। दोषारोपण करते है। मगर यह नहीं देख पाते कि हमने ही उसे यह कहा था कभी, कि अरे बेटा फलाने अंकल आये तो कह देना मम्मी पापा घर में नहीं है, या फिर अरे इसके साथ मत खेलो वह भंगी का बेटा है या चमार का बेटा है। यहाँ बहुत से लोग दिखावा करने के चक्कर में अपने बच्चों को उन दलितों के बच्चों के साथ खेलने की मजूरी तो दे-देते है। मगर उनके साथ खाना-पीना या उनके घर जाने की अनुमति नहीं दे पाते। क्योंकि वो लोग भले ही कितने भी साफ सुथरे क्यूँ न हो, मगर हमारी मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वह लोग हमेशा हमें खुद की तुलना में गंदे ही नज़र आते है।

क्या है इस समस्या का वाकई कोई निदान? मेरी समझ से तो नहीं जब तक एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझेंगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। रही बात इंसानियत की तो आज के ज़माने में इंसानियत की बात करना यानी एक ऐसी चिड़िया के विषय में बात करने जैसा है जिसकी प्रजाति लुप्त होती जा रही है। जिसका अस्तित्व लगभग खत्म होने को है। और यदि हमें इस चिड़िया को लुप्त होने से बचाना है तो संवेदनाओं को मरने से रोकना होगा। अपनी सोच बदलनी होगी जिसकी शुरुवात सबसे पहले खुद के घर से अर्थात खुद से ही करनी होगी क्योंकि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा करना और इस समस्या के समाधान हेतु आगे आना और मिलजुल कर प्रयास करना ही इस परंपरा या इस कुप्रथा का तोड़ साबित हो सकता है इसलिए "जागो इंसान जागो" अपने दिमाग ही नहीं बल्कि अपने दिल के दरवाजे भी खोलो। क्योंकि भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है।

Sunday

धर्म निरपेक्षता के मर्म को समझना जरूरी

भारतीय संविधान में और खासकर संविधान की प्रस्तावना (preamble) में साफ तौर से कहा गया है कि भारत लोकतांत्रिक प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य होगा। इसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता को लेकर संविधान लागू होने के बाद से ही विवाद चलता रहा है। इसलिए वस्तुस्थिति के बारे में सही जानकारी सबको मिलनी चाहिए। कुछ दिनों तक एक राजनीतिक दल ने दूसरे राजनीतिक दल पर यह आरोप लगाया था कि उसकी धर्मनिरपेक्षता की नीति वास्तव में छद्म धर्मनिरपेक्षता है। संविधान निर्माताओं ने इस बात पर गहराई से विचार किया था कि क्या आधुनिक युग में धर्म के आधार पर राज्य का सुचारू संचालन संभव है? संविधान सभा में भी इस विषय पर पर्याप्त बहस हुई थी। इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म के आधार पर शासन चलाने के कितने दुष्परिणाम होते हैं। इसलिए भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य का संचालन किसी धर्म के आधार पर नहीं होगा। इतना ही नहीं, ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत जैसे देश में जहां धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा, संस्कृति, रहन सहन और रीति रिवाज इतनी बड़ी संख्या में मौजूद हैं वहां इनमें से किसी एक को राज्य के द्वारा बढ़ावा दिए जाने और किसी दूसरे को अपमानित और लांछित किए जाने का भारी नुकसान हो सकता है। संविधान निर्माताओं ने इस अनेकता की कमजोरी को एकता की ताकत में बदलने का एक फार्मूला तैयार कर दिया जो भविष्य के लिए भी एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में काम करेगा। धर्मनिरपेक्षता को ठीक से समझने के लिए इसके शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दिया जाना चाहिए। निरपेक्षता और सापेक्षता दोनों धारणाओं में मुख्य बात है अपेक्षा। कोई काम समय सापेक्ष होता है तो उसमें यह अर्थ छिपा हुआ है कि समय वहां महत्वपूर्ण है लेकिन उसी काम को समय निरपेक्ष कर दिया जाए तो उसका अर्थ ये हुआ कि काम हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है परंतु कब होना है इसके लिए समय सीमा निर्धारित नहीं है।

भारतीय संविधान में भारतीय गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि राज्य के संचालन में धर्म को महत्व नहीं दिया जाएगा। धर्म जो है वो रहेंगे, धार्मिक संस्थाएं भी रहेंगी, धर्म परायणता भी रहेगी और धार्मिक रीति रिवाज अपने ढंग से चलते रहेंगे। राज्य न तो किसी धर्म को अपनाएगा और न ही किसी धर्म का विरोध करेगा। संविधान ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राज्य को यद्यपि धर्म की जरूरत नहीं है परंतु यहां के हर नागरिक को धर्म और आस्था की स्वतंत्रता प्राप्त है। राज्य इतना जरूर देखेगा कि इस मामले में कोई किसी के साथ जोर जबरदस्ती न करे। अगर भारत के एक गांव में किसी एक धर्म के मानने वाले 500 लोग हैं और दूसरे धर्म के मानने वाले सिर्फ 10 लोगों का एक परिवार है तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि अधिक संख्या वाले अपनी ताकत के बल पर कम संख्या वाले लोगों को अपना धर्म छोड़ने के लिए मजबूर कर सकें और अगर कहीं ऐसा होता है तो राज्य उसमें हस्तक्षेप करेगा। कई बार ऐसे प्रयास किए भी जाते हैं लेकिन भारत का कानून इस मामले में इतना सजग है कि वह `मत्स्य न्याय` की इस प्रवृति को कभी सफल नहीं होने देता। यह कहना भी शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार जैसे-जैसे बढ़ा है वैसे-वैसे धर्म के संबंध में गलतफहमियां भी दूर हुई हैं। सही बात तो यह है कि धर्म के संबंध में न कोई विवाद है और न ही होना चाहिए। धर्म वह मार्ग है जो अपने आराध्यदेव तक पहुंचने में मदद करता है। आराध्यदेव भी अलग-अलग हैं- कोई उन्हें भगवान मानता है तो कोई खुदा मानता है, कोई ईसा मसीह को भगवान मानता है तो कोई गुरुनानक को अपना आराध्य मानता है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर भी ऐसे ही आराध्य देवों की श्रेणी में आते हैं। कोई सगुण ब्रह्म को मानता है तो किसी की आस्था निर्गुण ब्रह्म में है। हिन्दू लोग तो यहां तक मानते हैं कि वैसे तो भगवान निर्गुण और निराकार हैं परंतु धरती पर जब अधर्म का बोलबाला स्थापित हो जाता है तो उसका नाश कर धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए भगवान अवतार ले लेते हैं।

वैसे तो आस्था से जुड़े मुद्दों पर बहस नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो यह धारणा अतार्किक नहीं दिखती। जो सर्वशक्तिमान है, जो सृष्टि के निर्माण और विनाश का कारण बन सकता है वह अगर अवतार लेता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यहां पर धर्म को सही ढंग से समझने में भी कुछ पुख्ता आधार मिल जाते हैं। गीता के अनुसार भगवान कृष्ण ने यह वचन दिया था कि जब-जब धर्म पर आपत्ति आएगी तो वह अधर्म को समाप्त कर धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए अवतार लेंगे। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मानव जब अपने कर्मों को भूलकर गलत रास्ता अपनाएगा अथवा मानव का एक समूह अपने दंभ और जोर जबरदस्ती के कारण अन्य लोगों को मानवोचित कर्मों से अलग करने की साजिश करेगा तब-तब भगवान अवतार लेंगे और अधर्मियों का नाश करेंगे ताकि मानवोचित कर्मों के महत्व को फिर से स्वीकार किया जाए और समाज सुचारू रूप से आगे बढ़े। धर्म का वास्तविक अर्थ यही है। मानवोचित कर्मों को अर्थात उन कर्मों को जिन्हें मनुष्य के लिए धारण करना जरूरी है धर्म कहते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वभाविक है कि मनुष्य के इतने लंबे इतिहास में मनीषी लोग पैदा हुए हों और उन लोगों ने अलग-अलग काल में अलग-अलग धर्म की स्थापना की हो। यह तो आस्था वाली बात बन जाती है कि जो मार्ग हमें पसंद है उस मार्ग पर हम चलें। हमें अपनी धार्मिक स्वतंत्रता सही रूप में तभी मिल सकती है जब हम दूसरों की धार्मिक स्वतंत्रता का आदर करें। शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति भी यही है कि जीयो और जीने दो। इसलिए भारत जैसे देश में जहां अनेक धर्म हैं वहां के लिए यह जरूरी है कि लोग यह मानकर चलें कि सभी धर्म अपनी जगह पर स्वतंत्र हैं और भारतीयता नामक एक धर्म ऐसा है जिसमें सभी धर्मों का न सिर्फ आदर किया जाता है बल्कि सभी धर्म उसमें समाहित भी हैं।

भ्रम की स्थिति तब पैदा होती है जब लोग यह पूछने लगते हैं कि राज्य का धर्मनिरपेक्ष होना तो समझ में आता है लेकिन व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है। इस भ्रम का निवारण सिर्फ एक तथ्य से हो सकता है कि मुझे अपने धर्म में पूरी आस्था है परंतु दूसरे धर्मों के प्रति मेरे मन में आदर का भाव भी है। आधुनिक लोकतंत्र में और खासकर भारत जैसे गणराज्य में इस बात को बहुत साफ तौर से समझ लेना चाहिए कि जो जितने महत्वपूर्ण पद पर बैठा है उसके लिए धार्मिक सहिष्णुता उतनी ही ज्यादा जरूरी है। एक आम आदमी कोई बात कहता है या कोई काम करता है तो उसका असर उसके इर्द गिर्द रहने वाले लोगों पर ही होता है। परंतु अगर कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कोई बात कहता है या कोई आचरण करता है तो उसकी तरफ सबका ध्यान जाता है। उसके आचरण और वक्तव्य दोनों में बनाने और बिगाड़ने की क्षमता है। कोई हिन्दू मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कोई बात कहता है या कोई आचरण करता है तो उसकी तरफ सबका ध्यान जाता है। उसके आचरण और वक्तव्य दोनों में बनाने और बिगाड़ने की क्षमता है। कोई हिन्दू मुख्यमंत्री अजमेरशरीफ जाकर चादर चढ़ाता है अथवा स्वर्ण मंदिर जाकर मत्था टेकता है तो उसका समाज पर अच्छा असर होना लाजिमी है। वह स्थिति वास्तव में आदर्श होगी जब एक धर्म के लोग दूसरे धर्मावलंबियों के धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल हों।

वर्तमान संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता को लेकर फिर से एक विवाद छिड़ गया है। राजनीतिक ढंग से कुछ लोग लीपापोती करने में लगे हैं लेकिन विवाद के कारणों को समझना और उनका समाधान करना समय की मांग है। हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक सलाह के तौर पर यह कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का प्रधानमंत्री का दावेदार ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसकी छवि स्वच्छ हो और धर्मनिरपेक्ष हो। उनके इस बयान को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघ चालक मोहन भागवत से लेकर भाजपा के नेता बलवीर पुंज तक ने भारी विरोध किया। हालांकि नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी का नाम नहीं लिया था लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेताओं ने यह मान लिया कि नीतीश कुमार का कथन नरेंद्र मोदी के बारे में है। इस सिलसिले में यह कहना जरूरी है कि वैसे तो नीतीश कुमार ने एक ऐसी सलाह दी है जो सिर्फ एनडीए ही नहीं सभी राजनीतिक दलों के लिए जरूरी है। और फिर एनडीए को ऐसी सलाह देने का उनका हक भी बनता है। जो स्वयं एनडीए का सदस्य है वह यदि ऐसी सलाह देता है तो इसमें बुरा क्या है। इस सलाह का विरोध करने वालों के बारे में ऐसा भी सोचा जा सकता है कि यहां चोर की दाढ़ी में तिनके वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। नरेंद्र मोदी की छवि को लेकर जो विवाद पहले से बना हुआ है उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ी गई। यह सही है कि एनडीए में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन जहां तक एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार का नाम तय करने की बात उठेगी तो जाहिर है कि उसमें शामिल सभी दलों की राय ली जाएगी। संघ और भाजपा ने एनडीए के साथी दलों से परामर्श किए वगैर यह कहना शुरू कर दिया कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने नरेंद्र मोदी का कद ऊंचा उठाने के लिए एक अभूतपूर्व कदम उठाया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्हें बुलाने के लिए उनके शर्तों को मानते हुए कार्यकारिणी के एक सदस्य संजय जोशी को बिना कारण बताए निकाल दिया। भाजपा के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि एनडीए के दलों को साथ लेकर चलने में कोई लापरवाही दिखाई गई तो वही परिणाम होगा जो राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला। एनडीए के दो बड़े दल जदयू और शिवसेना ने एनडीए के प्रत्याशी का समर्थन नहीं किया और यूपीए के प्रत्याशी का समर्थन किया। जाहिर है कि अगर एनडीए के सबसे बड़े दल भाजपा ने अन्य दलों को विश्वास में लेकर राष्ट्रपति चुनाव के लिए नीति बनाई होती तो उसकी ऐसी फजीहत नहीं होती। कमाल की बात तो यह है कि भाजपा के कुछ बड़े नेता यह दावा कर रहे हैं कि संगमा को समर्थन देकर उन्होंने बीजद और अन्नाद्रमुक को एनडीए में शामिल करने की एक चाल चली है। भाजपा का एक आम कार्यकर्ता भी सोच सकता है कि यदि जदयू और शिवसेना को छोड़कर बीजद और अन्नाद्रमुक का समर्थन मिल भी जाए तो वह कितना लाभदायक होगा।

जहां तक नरेंद्र मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित करने की दिशा में तेजी से कदम उठाए जाने का सवाल है तो एनडीए का आम कार्यकर्ता भी इस बात को आसानी से पचा नहीं सकता। इसमें कई सवाल शामिल हैं। पहला सवाल तो यह है कि क्या एनडीए में प्रधानमंत्री के दावेदार बनने लायक और नेता नहीं हैं। नरेंद्र मोदी मेंऐसी कौन सी विशेषता है जो एनडीए के अन्य नेताओं में नहीं है। भाजपा वाले नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष की छवि प्रदान करना चाहते हैं जबकि असलियत यह है कि गुजरात का विकास नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से बहुत पहले हो चुका था। मोदी ने एक विकसित राज्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ाया। अगर उनके साथ बिहार के मुख्यमंत्री और एनडीए के नेता नीतीश कुमार की तुलना की जाए तो मीडिया से लेकर हर कोई यह मानने को तैयार है कि नीतीश कुमार ने विकास की दृष्टि से पिछड़े एक राज्य को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया। अगर इस तुला पर तौलकर देखा जाए तो नीतीश कुमार कहीं अच्छे विकास पुरुष साबित होते हैं। उनकी स्वच्छ छवि और धर्मनिरपेक्ष चिंतन के बारे में उनके विरोधियों को भी कोई साक्ष्य नहीं मिलेगा। राजनीतिक समीक्षकों की बात को छोड़ दिया जाए, एक आम आदमी भी इस बात को आसानी से समझ लेगा कि नरेंद्र मोदी जैसा कट्टरपंथी व्यक्तित्व शायद एनडीए के पास दूसरा नहीं है। जाहिर है कि एनडीए में शामिल अन्य दल इसे पसंद करें या न करें लेकिन भाजपा कट्टरपंथी छवि वाले नेता नरेंद्र मोदी को दावेदार बनाकर मैदान में उतारने का मन बना रही है। भाजपा के एक नेता ने तो चार कदम और आगे बढ़कर मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से कर दी। शायद भाजपा और पूरे संघ परिवार की सोच यह बन रही है कि कट्टरपंथी नेता ही चुनाव में उनका उद्धार कर सकता है। यह दूर की कौड़ी तो उन्हें दिखाई दे रही है लेकिन चिराग तले अंधेरा वाली कहाबत भी वे चरितार्थ करने जा रहे हैं। पूरे एनडीए की तो बात छोड़ दी जाए, भाजपा के अंदर भी सभी लोग कट्टरपंथ को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति जब बड़ी लड़ाई लड़ने चलता है तो पहले घर को मजबूत कर लेता है।

हमारी वर्तमान राजनीति में समय साक्षेप व्यवहारिकता का भी काफी महत्व है। एक नगर निगम चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक राजनीतिक दलों के यहां टिकट मांगने वालों की भीड़ लग जाती है। हर व्यक्ति अपना बायोडाटा पेश करता है। पार्टी सबको तो टिकट दे नहीं सकती इसलिए जितने लोग आवेदन करने वाले हैं उनमें से ऐसे प्रत्याशी को पार्टी टिकट देती है जिसके खिलाफ मतदाता में ज्यादा विवाद न हों। यहां तक कि आपराधिक छवि वाले या घोटाले के आरोपी व्यक्तियों से हर पार्टी यथासंभव किनारा करने की कोशिश करती है। उसे पता है कि टिकट दे देना ही पर्याप्त नहीं है, मतदाता के बीच उस व्यक्ति की क्या पहचान बनती है उसपर ही उसकी हार जीत निर्धारित होगी। नीतीश कुमार की सलाह को एनडीए के नेताओं को एक स्वर्णिम सलाह (गोल्डन एडवाइस) के तौर पर देखना चाहिए। नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिकता के आरोप लगे हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि जब तक अदालत द्वारा उन्हें दोषी या निर्दोष साबित नहीं कर दिया जाता तब तक इस बारे में अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि वह एक विवादित व्यक्तित्व जरूर हैं। यहां तक कि बिहार विधानसभा के चुनाव में जहां जदयू और भाजपा साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे, नीतीश कुमार ने यह मांग कर दी कि भाजपा के नेता किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार करने के लिए न भेजें। यह स्थिति सिर्फ बिहार की नहीं है। अन्य प्रदेशों के कई और नेता भी यह चाहते हैं कि उनके राज्य में प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी न जाएं। अब सवाल ये उठता है कि अगर भाजपा और संघ परिवार ने यह ठान लिया हो कि कोई साथ आए या कोई साथ छोड़कर जाए उन्हें उसकी परवाह नहीं है तो बात दूसरी होगी। लेकिन अगर पहले की तरह भाजपा यह चाहती है कि एनडीए सभी सहयोगियों को साथ लेकर चले तो ऐसे ही व्यक्तित्व को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना चाहिए जिसकी छवि विवादित न हो। धर्मनिरपेक्षता की छवि भारत में नेता बनने के लिए जरूरी है। स्थानीय स्तर के चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक किसी भी प्रत्याशी की छवि अगर दागदार मानी जाती है तो उसके समर्थन मिलने की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं होती है। राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के सामने नरेंद्र मोदी को लेकर एक गंभीर चुनौती खड़ी हो सकती है। जिन दलों का धर्मनिरपेक्षता की नीति में अटूट विश्वास है वे भाजपा से दूरी बनाए रखने का प्रयास करेंगे। यह जरूरी नहीं कि एनडीए से हटने वाले सभी दल यूपीए में शामिल हो जाएं लेकिन इतना निश्चित है कि अगर दागदार छवि का व्यक्ति भाजपा की और से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया जाता है तो धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखने वाले दल एनडीए से जरूर अलग हो जाएंगे। नीतीश कुमार की सलाह को सही वक्त पर दी गई सही सलाह मानकर सही समय पर सही फैसला लेना ही भाजपा के लिए बुद्धिमानी होगी।


Thursday

आनंद मरा नहीं... आनंद मरते नहीं...

बाबू मोशाय, जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में है। कब, कौन, कैसे उठेगा, यह कोई नहीं जानता...।' हृषिकेश मुखर्जी द्वारा 1971 में निर्मित फिल्म 'आनंद' के इस मशहूर डायलॉग से सिने प्रेमियों पर कई दशकों तक राज करने वाला बॉलीवुड का पहला सुपरस्टार राजेश खन्ना उर्फ काका अब हमारे बीच नहीं रहे। आज दोपहर मुंबई स्थित निवास में उनका निधन हो गया। काका काफी दिनों से बीमार चल रहे थे। राजेश खन्ना के रूप में हिंदी सिनेमा को पहला ऐसा सुपरस्टार मिला था जिसका जादू सिर चढ़कर बोलता था। फिल्म आनंद इस संदेश के साथ खत्म होती है कि 'आनंद मरा नहीं...। आनंद मरते नहीं...।'

29 दिसंबर 1942 को अमृतसर में जन्मे जतिन खन्ना बाद में बॉलीवुड में राजेश खन्ना के नाम से मशहूर हुए। परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ अभिनय को बतौर करियर चुनने वाले राजेश खन्ना ने वर्ष 1966 में 24 साल की उम्र में `आखिरी खत` फिल्म से बॉलीवुड में कदम रखा था। बाद में राज, बहारों के सपने और औरत के रूप में उनकी कई फिल्में आई। मगर उन्हें बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी नहीं मिल सकी। वर्ष 1969 में फिल्म `आराधना` से राजेश खन्ना ने फिर करियर की उड़ान भरी और देखते ही देखते काका युवा दिलों की धड़कन ही नहीं, बॉलीवुड के सुपरस्टार बन गए। `आराधना` ने राजेश खन्ना की किस्मत के दरवाजे खोल दिए और उसके बाद एक दर्जन से अधिक सुपर-डुपर हिट फिल्में देकर समकालीन तथा अगली पीढ़ी के अभिनेताओं के लिए मील का पत्थर कायम किया। वर्ष 1970 में बनी फिल्म `सच्चा झूठा` के लिए उन्हें पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया।

वर्ष 1971 राजेश खन्ना के लिए सबसे यादगार साल रहा। उस वर्ष उन्होंने कटी पतंग, आनन्द, आन मिलो सजना, महबूब की मेंहदी, हाथी मेरे साथी और अंदाज जैसी कई सुपरहिट फिल्में दीं। दो रास्ते, दुश्मन, बावर्ची, मेरे जीवन साथी, जोरू का गुलाम, अनुराग, दाग, नमक हराम और हमशक्ल के रूप में हिट फिल्मों के जरिए उन्होंने बॉक्स ऑफिस को कई वर्षों तक गुलजार रखा। फिल्म `आनन्द` में उनके सशक्त अभिनय ने एक मिशाल कायम की। एक लाइलाज रोग से पीड़ित शख्स के किरदार को राजेश खन्ना ने एक जिंदादिल इंसान के रूप जीकर कालजयी बना दिया। राजेश को `आनन्द` में यादगार अभिनय के लिए वर्ष 1971 में लगातार दूसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया।

वैसे तो राजेश खन्ना ने कई अभिनेत्रियों के साथ काम किया, लेकिन शर्मिला टैगोर और मुमताज के साथ उनकी जोड़ी ज्यादा लोकप्रिय हुई। उन्होंने शर्मिला के साथ आराधना, सफर, बदनाम, फरिश्ते, छोटी बहू, अमर प्रेम, राजा रानी और आविष्कार में जोड़ी बनाई, जबकि दो रास्ते, बंधन, सच्चा झूठा, दुश्मन, अपना देश, आपकी कसम, रोटी तथा प्रेम कहानी में मुमताज के साथ उनकी जोड़ी बेहद पसंद की गई।

राजेश खन्ना ने वर्ष 1973 में खुद से काफी छोटी नवोदित अभिनेत्री डिम्पल कपाडिया से शादी के बंधन में बंधे और वे दो बेटियों ट्विंकल और रिंकी के माता-पिता बने। दुर्भाग्य से राजेश और डिम्पल का वैवाहिक जीवन अधिक दिनों तक नहीं चल सका और कुछ समय के बाद वे अलग हो गए। राजेश खन्ना के करियर में 80 के दशक के बाद उतार शुरू हो गया। बाद में उन्होंने राजनीति में भी कदम रखा और वर्ष 1991 से 1996 के बीच कांग्रेस से सांसद भी रहे। वर्ष 1994 में उन्होंने `खुदाई` से एक बार फिर अभिनय की नई पारी शुरू की। उसके बाद उनकी कई फिल्में मसलन आ अब लौट चलें (1999), क्या दिल ने कहा (2002), जाना (2006) और वफा आई। इधर लगभग दो महीने से राजेश खन्ना गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे। हालांकि इस बुरे वक्त में डिंपल अस्पताल में लगातार उनके साथ थीं।


Tuesday

नेताजी की मौत का सच क्यों छिपा रहे थे प्रणब?

राष्ट्रपति पद के यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत का सच छुपाने का आरोप लगाया गया है। पूर्व पत्रकार अनुज धर ने अपनी जल्द ही प्रकाशित होने वाली किताब में प्रणब मुखर्जी पर गंभीर आरोप लगाए हैं।

किताब के मुताबिक आजाद हिंद फौज के संस्‍थापक सुभाष चंद्र बोस की मौत विमान हादसे में नहीं हुई थी। प्रणब मुखर्जी ने अपने विदेश मंत्री कार्यकाल के दौरान अपनी सीमा से बाहर जाकर इस सच को छुपाया। किताब के मुताबिक नेताजी ने आखिरी दिन कैसे गुजारे, इस पर पर्दा डालने में भी प्रणब मुखर्जी शामिल थे।

सरकारी दस्तावेज के मुताबिक सुभाष चंद्र बोस की मौत 1945 में ताइवान में हुए विमान हादसे में हुई थी। अनुज धर की किताब में इस बात को नकारा गया है कि सुभाष चंद्र बोस के मौत विमान हादसे में हुई। यह किताब अम‌ेरिका और ब्रिटेन की गुप्त सूची से हटाए गए रिकॉर्ड और भारतीय प्रशासन के दस्तावेजों पर आधारित है, जिन्हें पिछले 65 सालों से सीक्रेट रखा गया।

किताब में अनुज धर ने प्रणब मुखर्जी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने अपने विदेश मंत्री कार्यकाल के दौरान विमान हादसे की थ्योरी को अपनी सीमा से बाहर जाकर समर्थन किया था। हालांकि सबूतों से साफ जाहिर था कि नेताजी की मौत विमान हादसे में नहीं हुई थी।

1996 की एक घटना का हवाला देते हुए धर कहते हैं कि विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने एक सीक्रेट नोट के जरिए सलाह दी थी कि भारत को बोस की मौत से जुड़े सबूत जमा करने के लिए रशियन फेडरेशन को सख्त कदम उठाने संबंधित नोटिस जारी करना चाहिए।

किताब के मुताबिक मुखर्जी ने इस नोट को देखा और विदेश सचिव सलमान हैदर को संयुक्त सचिव से मिलने का आदेश दिया। मीटिंग के बाद संयुक्त सचिव नोटिस के बारे में भूल गए और स्वार्थी हो गए। उन्हें ऐसा लगा कि केजीबी आर्काइव्स को खंगालने से भारत और रूस के संबंध खराब होंगे। ऐसे में मुखर्जी बोस की मौत की ताईवान थ्योरी के सबसे पहले समर्थक बन गए।

Wednesday

ओह माई गॉड' में अक्षय बनेंगे कृष्ण, सोनाक्षी करेंगी आयटम सांग और सलमान देंगे पार्श्व स्वर

मुंबई। फिल्म 'ओह माई गॉड' में अक्षय कुमार और सलमान खान साथ नजर आएंगे। निर्देशक उमेश शुक्ला फिल्म में केवल सलमान की आवाज इस्तेमाल की बात से इंकार कर रहे हैं। शुक्ला ने साफ किया कि फिल्म में सलमान की आवाज का इस्तेमाल सिर्फ प्रोमो के लिए किया गया है। मेरी फिल्म एक कॉमेडी फिल्म है और मै चाहता हूं कि कोई ऐसा अभिनेता इसमें काम करे जो फिल्म के पात्रों के साथ न्याय कर सके। फिल्म में अक्षय और सोनाक्षी एक गाने में नजर आएंगे। शुक्ला ने बताया कि अक्षय को इसलिए चुना गया क्योंकि उन्होंने अभी तक ऐसा रोल पहले नहीं किया, मै चाहता था कि वो ये रोल करे। वहीं खबर ये भी है कि बॉलीवुड की दबंग गर्ल सोनाक्षी सिन्हा 'ओह माई गॉड' में एक स्पेशल आइटम नंबर थिरकते दिखाईं देंगी। सूत्रों की मानें तो इस गाने की शूटिंग जल्द ही मुंबई में शुरू होगी और गाने में अक्षय कुमार भी साथ में होंगे। आपको बता दें कि अक्षय-सोनाक्षी की सितंबर फिल्म 'जोकर' आने वाली है और इसके बाद उनकी यह तीसरी ऐसी फिल्म होगी जिसमें दोनों साथ हैं। गौरतलब है कि 'ओह माय गॉड' परेश रावल के लोकप्रिय गुजराती नाटक कांजी विरुद्ध कांजी पर आधारित होगी। इस फिल्म में अक्षय भगवान कृष्ण के रूप में नजर आएंगे।

Tuesday

मालदीव में विद्रोह, राष्ट्रपति का इस्तीफ़ा

मालदीव में सेना और पुलिस ने मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया है।
प्रदर्शनकारियों के बढ़ते दबाव के बीच मालदीव के राष्‍ट्रपति मोहम्‍मद नाशीद ने इस्‍तीफ़ा दे दिया है और कमान उप राष्‍ट्रपति वहीद हसन को सौंप दी है।
विदेशी मीडिया में आ रही ख़बरों के मुताबिक सरकारी टीवी स्‍टेशन पर सेना का क़ब्‍ज़ा हो गया है। मालदीव में आसमान छूती क़ीमतों, कथित कुप्रबंधन और बेकार के ख़र्च को लेकर लोगों में सरकार के ख़िलाफ़ भारी ग़ुस्‍सा है।
विपक्ष समर्थित प्रदर्शनकारी नाशीद के इस्तीफ़े की मांग को लेकर कई महीने से प्रदर्शन कर रहे हैं। यह विरोध प्रदर्शन उस वक़्त और तेज़ हो गया, जब सेना ने पिछले महीने एक सीनियर जज को गिरफ़्तार किया।